एक संत को जंगल में एक नवजात शिशु मिला। वह उसे अपने घर जे आए। उन्होंने उसका नाम जीवक रखा।
उन्होंने जीवक को अच्छी शिक्षा – दीक्षा प्रदान की। जब वह बड़ा हुआ तो उसने संत से पूछा , ‘गुरुजी , मेरे माता -पिता कौन हैं ? ‘
संत को जीवक के मुंह से यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन उन्होंने उसे सच बताने का निश्चय किया और बोले , ‘ पुत्र , तुम मुझे घने जंगलों में मिले थे। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं और कहां हैं ? ‘
जीवक अत्यंत उदास होकर बोला , ‘ गुरुजी , अब आत्महीनता का भार लेकर मैं कहां जाऊं ? ‘ इस पर संत उसे सांत्वना देते हुए बोले , ‘ पुत्र , इस बात से दु:खी होने के बजाय तुम तक्षशिला जाओ और वहां विद्याध्ययन करके अपने ज्ञान के प्रकाश से संपूर्ण समाज को आलोकित करो।‘
जीवक अध्ययन के लिए चल पड़ा। वहां पहुंचकर वहां के आचार्य को उसने अपने बारे में सब कुछ बता दिया। आचार्य ने उसकी स्पष्टवादिता से प्रभावित होकर उसे विश्वविद्यालय में प्रवेश दे दिया। जीवक वहां पर कठोर परिश्रम के साथ आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
संपूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के बाद एक दिन आचार्य जीवक से बोले , ‘ पुत्र , अब तुम मगध जाकर वहां के लोगों की सेवा करो। ‘ यह सुनकर जीवक परेशान हो गया।
आचार्य उसे दु:खी देखकर बोले , ‘ कौन सी बात तुम्हें टीस रही है ? ‘ जीवक बोला , ‘आचार्य , आप तो जानते ही हैं कि मेरा कोई कुल और गोत्र नहीं है। मैं जहां भी जाऊंगा , लोग मुझ पर उंगलियां उठाएंगे। क्या आप मुझे अपने पास ही नहीं रख सकते ? ‘
उसकी बात सुनकर आचार्य बोले , ‘ वत्स ! तुम्हारी प्रतिभा और ज्ञान ही तुम्हारा कुल-गोत्र है। इन्हीं से तुम्हें सम्मान मिलेगा। ‘ आचार्य की बातों ने जीवक को नई दिशा दिखाई और वह मगध आ गया। वहां उसने लगन और मेहनत से काम किया। कुछ ही समय में वह पूरे मगध में आयुर्वेदाचार्य के रूप में प्रसिद्ध हो गया।