कबीरदास जी ने कहा है ,
‘ बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय। जो दिल ढूंढ़ा आपना , मुझसे बुरा न कोय ।। ‘
कबीरदास जी अपने इस दोहे से जीवन के उस आर्दश को व्यक्त करते हैं जिसकी आज के मनुष्य को बड़ी जरूरत है।
ध्यान कीजिए पूरे दिन में आप दूसरों के कितने गुणों को पहचानते हैं। शायद दो या एक अथवा एक भी नहीं। लेकिन बुराई पर ढेरों गिन लेंगे। यही व्यक्तित्व की सबसे बड़ी कमी है। हम सभी को दूसरों के गुण देखने चाहिए न कि अवगुण।
जो मनुष्य यह कला सीख लेता है उसके लिए न कोई शत्रु होता है न नफरत का पात्र। ऐसे व्यक्ति के सभी मित्र होते हैं और लोक-परलोक में उनकी कीर्ति बनी रहती है।
ऐसे ही एक गुणवान व्यक्ति थे संत उड़िया बाबा। यह असहायों , गरीबों और बीमार व्यक्ति की सहायता को ही सबसे बड़ा धर्म बताया करते थे।
दुनियादारी , लोभ-मोह से इनका कोई वास्ता नहीं था। आज के संतों की भांति यह सिर्फ उपदेश नहीं देते थे बल्कि , व्यवहारिक जीवन में खुद भी अपने उपदेश के अनुसार चलने की कोशिश करते थे। इनका कहना था प्रत्येक प्राणी में ईश्वर है। इसलिए किसी के दोष को नहीं देखना चाहिए। दूसरों में दोष ढूंढना ईश्वर में कमी निकालना है।
एक समय उड़िया बाबा बदायूं स्थित गंगा के किनारे कुटिया बनाकर उसमें रह रहे थे। इनके आश्रम में एक बीमार व्यक्ति आया। बाबा ने इस व्यक्ति के लिए दूध एवं फल की व्यवस्था करवा दी। एक दिन आश्रम का सदस्य बाबा के पास आकर बोला ‘ बाबा , आप जिस बीमार व्यक्ति को दूध और फल दिलवा रहे हैं , वह तो कई दुर्गुणों से भरा है। हम चाहते हैं कि आप उस व्यक्ति को आश्रम से निकाल दें।
उड़िया बाबा ने आश्रम के सदस्य की ओर गौर से देखा और मुस्कुराकर बोले , ‘ जब सृष्टि के मालिक भगवान ने दुर्गुण से भरे उस व्यक्ति को संसार से नहीं निकाला तो हम उसे इस छोटे से आश्रम से निकालने वाले कौन होते हैं।
बाबा ने कहा , ‘ भैया , संसार में ऐसा कौन प्राणी है , जिसमें तमाम गुण ही हैं , दुर्गुण एक भी नहीं है। क्या तुम यह समझते हो कि तुममें और मुझमें कोई दुर्गुण नहीं है। सत्संग से दुर्गुण कम करने का प्रयास करना चाहिए , न कि तिरस्कार करके दु:ख पहुंचाना चाहिए।