महावीर स्वामी तपस्या में लीन थे। एक दुष्ट उनके पीछे लग गया। कई बार उसने महावीर स्वामी का अपमान किया , लेकिन वे सदैव शांत ही रहते। उन्होंने तो संसार को प्रेम का पाठ पढ़ाया था। वे कहते थे सदा प्रेम करो , प्रेम में ही परमतत्व छिपा है। जो तुम्हारा अहित करे उसे भी प्रेम करो।
उनके इन उपदेशों को सुनकर वह दुष्ट यह देखना चाहता था कि कष्ट देने वालों से कौन और कैसे प्रेम कर सकता है? अत: वह प्राय: उन्हें कष्ट दिया करता था।
एक दिन महावीर एक पेड़ के नीचे तपस्या में लीन थे। वह दुष्ट उनके पास आया और उसने उनके साथ छेड़छाड़ शुरू कर दी। महावीर शांत रहे। दुष्ट ने देखा कि उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा तो उसने लकड़ी का एक टुकड़ा महावीर के कान में डाल दिया। उनके कान से खून बहने लगा। फिर उनके दूसरे कान में भी उसने वैसा ही किया। वह कान भी खून से लथपथ हो गया। तब भी महावीर शांत रहे।
दुष्ट ने देखा कि महावीर की आंखों से आंसू बहने लगे हैं और वे कराह रहे हैं। यह देखकर वह थोड़ा पसीजा और बोला – तुम्हें मैंने बहुत कष्ट दिया। तुम्हें पीड़ा हो रही है ?
महावीर ने कहा – पीड़ा मेरे तन को नहीं , मन को हो रही है। दुष्ट बोला – लेकिन घायल तो तुम्हारा तन हुआ है। महावीर ने कहा – तन के विषय में मुझे नहीं मालूम। तुम्हें जो अच्छा लगे , करो। तुमने जो कर्म किया है उसके लिए तुम्हें कितना कष्ट भोगना पड़ेगा , बस यही सोचकर दु:खी हो रहा हूं। यह सुनकर दुष्ट उनके चरणों में गिर पड़ा।
कथा बताती है कि घृणा या अत्याचार कभी प्रेम को समाप्त नहीं कर सकते। जिस प्रेम को घृणा या दु:ख दबा दे , वह सच्चा प्रेम नहीं हो सकता।