मैंने सुना है , एक पुरानी तिब्बती कथा है कि दो उल्लू एक वृक्ष पर आकर बैठे। एक ने सांप को अपने मुंह में पकड़ रखा था। भोजन था उसका , सुबह की नाश्ते की तैयारी थी। दूसरा एक चूहा पकड़ लाया था।
दोनों जैसे ही बैठे वृक्ष पर पास – पास आकर एक के मुंह में सांप , एक के मुंह में चूहा। सांप ने चूहे को देखा तो वह यह भूल ही गया कि वह उल्लू के मुंह में है और मौत के करीब है। चूहे को देख कर उसके मुंह में रसधार बहने लगी ।उसको अपनी जीवेषणा ने पकड़ लिया और चूहे ने जैसे ही देखा सांप को , वह भयभीत हो गया , वह कांपने लगा।
ऐसे तो मौत के मुंह में बैठा है , मगर सांप को देख कर कांपने लगा। वे दोनों उल्लू बड़े हैरान हुए। एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा कि भाई , इसका कुछ राज समझे ?
दूसरे ने कहा , बिलकुल समझ में आया। जीभ की , रस की , स्वाद की इच्छा इतनी प्रबल है कि सामने मृत्यु खड़ी हो तो भी दिखाई नहीं पड़ती। और यह भी समझ में आया कि भय मौत से भी बड़ा भय है। मौत सामने खड़ी है , उससे यह भयभीत नहीं है चूहा , लेकिन भय से भयभीत है कि कहीं सांप हमला न कर दे।
मौत से हम भयभीत नहीं हैं , हम भय से ज्यादा भयभीत हैं। और लोभ स्वाद का , इंद्रियों का , जीवेषणा का इतना प्रगाढ़ है कि मौत चौबीस घंटे खड़ी है , तो भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। हम अंधे हैं।